“इस दश्त में इक शहर था, वो क्या हुआ . . . आवारगी. . .”

WP_20150827_17_53_29_Proहाँ, वहां जहाँ से नदी घूमती है, नदी के उस मोड़ पर – वहाँ एक बाग़ है और एक घर. शायद आप पहचान न पायें उसे – उसकी दीवारों की पुताई नहीं हुई कब से, और फोफारों से उग आये पीपल और जंगली घांसों को किसी ने छांटा भी नहीं होगा, उसके बंद कमरों के धूल भरे अँधेरे में मकड़ियों और चूहों ने घर बना डाले होंगे. पर इसके हर एक चप्पे पर मेरे बचपन के निशान फिर भी ज़रूर बाक़ी होंगे, कुँए के पास संतरे और अमरूद के उन पुराने पेड़ों के तनों पर नुकीले पत्थरों से उकेरे दो नाम होंगे अभी भी, और नीम की पुरानी डालों पर झूले की रस्सी के निशान भी अभी खोये तो नहीं होंगे. हाँ, यह कभी मेरी नानी का घर था – वहाँ आज भी कहीं किसी पेड़ की छाया में फूल चुनता मेरा बचपन बैठा होगा, आने वाले वक्त के गर्भ में क्या छुपा है – कौन सी त्रासदियाँ, कौन से दुःख, कैसी हारें – इससे बेखबर. बेखबर कि उस बचपन की नदी के पार एक शहर बसता है जहाँ मुझे चले जाना है एक दिन. वो शहर जहाँ यूँही बिना मतलब, गलबहियां डाले, कोई नहीं चलता, रूठने के बाद जहां दोस्त मनाये नहीं जा पाते, जहाँ बचपन का हठ पकड़ कर चाही चीज़ पायी नहीं जाती, जहाँ गालों पर आंसू बह आने से ही कोई सब भूल कर दौड़ नहीं पड़ता बाहें फैलाए. क्या वाकई इतनी दूर निकल आयी मै? क्या वाकई उस किनारे वह सड़क पकड़ कर नहीं पहुंचा जा सकता नानी के घर? क्या वाकई अगर अभी उतर कर उस किनारे पहुँच ही जाऊं तो क्या रसोई में चाय का पानी चढ़ाकर इंतज़ार करती नानी नहीं मिलेगी मुझे यह पूछती कि कहो, बड़ी देर लगाय दियो बिब्बी! कहाँ रहयू?

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